अभिव्यक्ति की आज़ादी की सीमा कहां है?

साकाल पेपर्स जैसे मामले में अदालत किस तरह फैसला सुनाए? संविधान कुछ उचित प्रतिबंधों के साथ केवल बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है। जब बोलने की आज़ादी पर क़ानून बन रहा था तब संविधान सभा में बहस के दौरान अख़बारों के एकाधिकार के मुद्दे पर वास्तव में संविधान निर्माताओं ने कोई चर्चा ही नहीं की थी।

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कोरोना काल में बढ़ी हैं लोगों की मानसिक परेशानियां

कोरोना महामारी का असर हमारे दैनिक जीवन, काम करने के तरीक़ों, सामाजिक रिश्तों पर तो पड़ा ही है। इस वायरस ने हमारे ज़िंदगी जीने के तरीक़े को पूरी तरह बदल कर रख दिया है। विशेषज्ञ शुरु से ही इस संक्रमण से बचने लिए हमें लोगों से थोड़ी दूरी बना कर रखने की सलाह दे रहे हैं।

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पेगासस प्रोजेक्ट अनैतिक क्यों हैं और देशहित में क्यों नहीं है?

हाल ही में दुनिया के चुनिंदा मीडिया संस्थानों ने खुलासा किया कि पेगासस स्पाइवेयर के ज़रिए नेताओं, नौकरशाहों, उद्योगपतियों, जजों औऱ पत्रकारों समेत तमाम अहम लोगों के फोन को निशाना बनाया गया और उनकी गतिविधियों पर नज़र रखी गई और उनके फोन एक्सेस किए गए।

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बा-इज़्ज़त बरी हमें कहानी का वो हिस्सा सुनाती है जो हमें सुनने नहीं दिया गया

एक तो मुसलमान ऊपर से आतंकवाद के आरोपी। ऐसे में मामलों में मीडिया का निष्पक्ष रह पाना तक़रीबन नामुमकिन है। हम अकसर साम्प्रदायिक दंगों और मज़हबी एजेंडा वाली ख़बरों में ऐसा देखते हैं। इसमें मीडिया में एक वर्ग के प्रतिनिधित्व का अभाव तो है ही, दूसरे पक्ष के लिए मन में बुन रखी अवधारणाएं भी हैं। इसके अलावा आतंकवाद से जुड़े मामलों में मीडिया पर अतिरिक्त जनदबाव भी होता है। ख़ैर, इस सबका असर होता है कि दूसरे पक्ष को सुना ही नहीं जाता। बा-इज़्ज़त बरी ऐसे ही सोलह मामलों में दूसरा पक्ष है।

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