अभिव्यक्ति की आज़ादी की सीमा कहां है?

अभिव्यक्ति की आज़ादी की सीमा कहां है?

गौतम भाटिया

बोलने की और अभिव्यक्ति की आज़ादी मौजूदा दौर में राजनीतिक विमर्श और अभ्यास के केंद्र में है। अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय मानवाधिकार सम्मेलनों के ज़रिए, ज़्यादातर देशों ने बोलने की और अभिव्यक्ति की आज़ादी को अधिकार के रुप में मानने की प्रतिबद्धता जताई है। दुनिया भर के संवैधानिक लोकतंत्रों ने बोलने की आज़ादी को मौलिक अधिकार माना है। अदालतों ने अक्सर सरकारों के ख़िलाफ इसे लागू भी किया है। आज के दौर में ये मानना मुश्किल है कि कोई देश अपने आप को लोकतांत्रिक कहे लेकिन बोलने की और अभिव्यक्ति की आज़ादी को चाहे दिखावे के लिए सही, लेकिन आदर्श न माने।

इसे लेकर शायद ही हैरानी हो। हम संवाद करने वाले प्राणि हैं। हम भाषा और दूसरे संकेतों के ज़रिए अपने आस पास एक दुनिया का निर्माण करते हैं। इसके ज़रिए हम दूसरों तक अपनी समझ पहुंचाते हैं और अपने व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। इसलिए मानवीय हितों की सूची में बोलने की आज़ादी और ख़ुद को अभिव्यक्त करने का मुद्दा केंद्रीय स्थान हासिल करते हैं।

लेकिन जब हम अभिव्यक्ति को समझने को कोशिश करते हैं और इसे स्वतंत्रता के लिए ज़रूरी मानते हुए लागू करने की कोशिश करते हैं, तो पाते हैं कि इसे सबसे ज़्यादा चुनौती दी जा रही है। इस स्थिति में तमाम तरह के विवाद होते हैं। हम इस बात से शुरु करते हैं कि संवाद करने के सभी तरीक़े अभिव्यक्ति की आज़ादी के दायरे में नहीं आते हैं। तक़रीबन हम सभी इस बात को मानते हैं कि  

जो क़ानून हत्या को प्रतिबंधित करते हैं और इसके लिए सज़ा का प्रावधान करते हैं वो एक निहिलवादी को अपना दर्शन अपने कर्म से ज़रिए अभिव्यक्त करने से रोकते हैं। इसे सही भी माना जाता है। हम इस तरह के और भी उदाहरण देख सकते हैं। जो डाक्टर अपने मरीज़ को जानबूझकर जानलेवा दवा की ग़लत जानकारी दे रहा है उसको बोलने की आज़ादी के नाम पर सज़ा से नहीं बचाया जा सकता। इस सबके बावजूद हम दूसरों की तरह ये क्यों समझते हैं कि संवाद से जुड़े सब नहीं बल्कि कुछ कृत्यों की रक्षा होनी चाहिए। और ये भी कि अंतर कहां पर है?

अधिकांश संवैधानिक लोकतंत्रों ने मुक्त भाषण सिद्धांत की प्रकृति और दायरे को लेकर कड़वे विवाद होते देखे हैं। क्या नफरत फैलाने वाले भाषणों की रक्षा होनी चाहिए?

क्या लोगों को पोर्नोग्राफी का इस्तेमाल करने के लिए स्वतंत्र रहने देना चाहिए? क्या उत्साही अराजकतावादियों को दूसरों को क़ानून की अवज्ञा करने के लिए प्रोत्साहित करने की अनुमति दी जानी चाहिए? क्या हमें दूसरों को निंदा करने और बदनाम करने के लिए लोगों को दंडित करना चाहिए? कॉपीराइट क़ानून के मानदंडों के मुताबिक़ लोगों को दूसरों की ‘अभिव्यक्ति’ की नक़ल करने से किस हद तक रोकना चाहिए? भारत में इन सवालों के जवाब छोड़िए, जवाब देना शुरु करने के लिए भी सिद्धांत या मुक्त भाषण के लिए सिद्धांत ढूंढने पड़ेंगे। बोलने की आज़ादी में ख़ास क्या है? हम किस चीज़ की रक्षा करना चाह रहे हैं और हम क्यों इसकी रक्षा करना चाह रहे हैं और किन ख़तरों से इसे बचाना चाहते हैं? इसकी जांच करेंगें तो राजनीतिक और नैतिक दर्शन से जुड़े सवालों से बच नहीं पाएंगे। इसमें लोकतंत्र का अर्थ, व्यक्तिगत अधिकार और मानवीयता के  सवाल शामिल हैं।

अगर मुक्त भाषण से जुड़े विवादित सवालों के जवाब सिद्धांत के बिना नहीं खोज जा सकते तो हम समझ जाएंगे कि अदालतें (जानबूझ कर या अनजाने में) सिद्धांत लागू कर रही हैं। संवैधानिक पाठ जो बोलने और अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए एक गांरटी भर हैं अदालतों को सिद्धांत लागू कर पाने से नहीं रोक पा रहे हैं।

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