खेतिहर मज़दूरों पर कोरोना की मार

खेतिहर मज़दूरों पर कोरोना की मार

कोरोना वायरस उत्तर भारत के भूमिहीन मज़दूर, ख़ासकर महिलाओँ के लिए संकट बनकर आया है। जिस समय ये मज़दूर गेंहू की कटाई करके साल भर का गल्ला इकट्ठा कर सकते थे उस काल में वो देश के सुदूर इलाक़ों में फंसे थे। हालांकि लॉकडाउन के तीसरे चरण में तमाम मज़दूरों की घर वापसी की कोशिशें हो रही हैं लेकिन बहुत से लोगों के लिए अब काफी देर हो चुकी है।

भारत में गेंहूं रबी की प्रमुख फसल है। उत्तर भारत में गेंहूं मार्च के आख़िरी हफ्ते से अप्रैल के पहले हफ्ते के बीच पक कर तैयार हो जाता है। कृषि मंत्रालय ने इस साल गेंहू की बंपर फसल की संभावना जताई थी। मंत्रालय को चालू रबी सीजन में 10.70 करोड़ टन से भी अधिक गेहूं के उत्पादन की उम्मीद है। लेकिन इस बार आम कारोबार के अलावा खेती को भी कोरोना वायरस का ग्रहण लग गया है। ऐन फसल कटाई के मौक़े पर देश में लॉकडाउन का ऐलान हो गया।

2011 की जनगणना के मुताबिक़ देश में तक़रीबन 14.43 करोड़ भूमिहीन मज़दूर हैं। इन मज़दूरों ख़ासकर महिलाओं के लिए गेहूं का कटाई सीज़न न सिर्फ ठीक-ठीक पैसे कमाने का मौसम होता है बल्कि इन दिनों में वो साल भर का गल्ला भी जमा कर लेते हैं। अक्सर गेहूं काटने वाले मज़दूर दिहाड़ी के बदले काटी गई फसल में थोड़ी बहुत हिस्सेदारी भी तय कर लेते हैं। इससे बाज़ार से कम दर पर गेहूं मिलना सुनिश्चित हो जाता है। इसके साथ ही मज़दूर कटाई और मशीन से गेहूं निकासी के बाद खेत में बचे,बिखरे दाने और भूसा समेट कर ले जाते हैं। इससे न सिर्फ परिवार का साल भर का राशन बल्कि पशुओं का चारा भी जमा हो जाता है।

यूपी के विकास विभाग में अफसर रहे राजेंद्र यादव बताते हैं कि गेहूं कटाई के सीज़न में हरियाणा, पंजाब और पश्चिम यूपी में दिहाड़ी साल के सामान्य दिनों से ज़्यादा होती है। भूमिहीन मज़दूर महीने भर में औसतन 3-5 हज़ार कमा पाते हैं। लेकिन मज़दूरों की कमी और खेतों में उनकी लगातार मांग के चलते कटाई सीज़न में प्रतिदिन 700-800 तक दिहाड़ी मिल जाती है। इसके अलावा जो गेहूं खेत से बीन कर ले आएं वो अतिरिक्त है। कुल मिलाकर गेहूं कटाई का सीज़न बोनस काल है। मज़दूर साल भर इसका इंतज़ार करते हैं। यहां तक की दूर-दराज़ शहरों में मज़दूरी कर रहे लोग कटाई के सीज़न में गांव लौट आते हैं ताकि पैसे और परिवार ख़र्च के लिए गेहूं गल्ले का इंतज़ाम किया जा सके।

इस साल ऐसा नहीं हो सका। मज़दूर लॉकडाउन की वजह से देश के दूर-दराज़ इलाक़ों में फंसे रह गए। जो किसी भी तरह लौट आए वो आख़िर में फायदे में रहे। शायद यही वजह थी लॉकडाउन का ऐलान होने के बाद बड़ी तादाद में मज़दूर पैदल ही अपने घरों की तरफ लौट चले थे। जो नहीं आए उनके लिए ये पूरा साल भारी गुज़रने वाला है। लखीमपुर खीरी के रहने वाले राजू ऐसे ही एक मज़दूर हैं। वो पूरे साल दिल्ली, फरीदाबाद में निर्माण सेक्टर में दिहाड़ी करते हैं लेकिन कटाई के दौर में घर लौट जाते हैं। इस साल वो घर नहीं जा पाए हैं और दिल्ली में फंसे हैं। राजू का कहना है कि एक तो बंदी की वजह से दिल्ली में काम नहीं है, ऊपर से कटाई का सीज़न भी निकल गया। अब जब वापस लौटेंगे तो गेहूं के दाम बढ़ चुके होंगे ऊपर से उनके पास गल्ला ख़रीदने के लिए भी पैसे नहीं होंगे।

संभल ज़िले के गुन्नौर की रहने वाली लक्ष्मी की दूसरी परेशानी है। उनके लिए गेहूं कटाई का समय आर्थिक स्वावलंबन का काल है। ऐसे तो घर वाले मज़दूरी नहीं करने देते लेकिन उन जैसी हज़ारों निरक्षर या कम पढ़ी लिखी महिलाएं धान रोपाई और गेहूं निकासी के दौर में कुछ पैसे कमा लेती हैं। जो दूसरों के यहां मज़दूरी नहीं करतीं वो अपने या बंटाई पर लिए खेत में काम कर लेती हैं। कुल मिलाकर श्रम में उनकी हिस्सेदारी बढ़ जाती है।

लेकिन बात यहीं ख़त्म नहीं होती है। कोरोना की वजह से हुए लॉकडाउन की मार सिर्फ मज़दूरों पर नहीं पड़ी है, किसान भी इसके भुक्तभोगी हैं। हालांकि फसल कटाई और कृषि कार्यों में लगे लोगों को लॉकडाउन में सरकार ने छूट का ऐलान किया था लेकिन फिर भी मज़दूर और कटाई मशीन पर्याप्त संख्या में उपलब्ध नहीं हो सके। किसानों को गेहूं कटाई या तो ख़ुद करनी पड़ी या जो मज़दूर मिला उसे औनी-पौनी मज़दूरी चुकानी पड़ी। इससे कटाई में देरी हुई और इस बीच ख़राब मौसम के चलते बहुत से किसानों का नुक़सान उठाना पड़ा।

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